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गौ वेद – रोग हरण

१. लक्ष्मी गोमये नित्यं पवित्रा सर्वमङ्गला। गोमयालयनं तस्मात् कर्तव्य पांडुनंदनन।।

२. अनु सूर्यमुदयतां हृदयोतो हरिमा च ते। जो रोहितस्य वर्णेन तेन त्वा पारी दध्मसि ॥

जो रोहितस्य वर्णेन तेन त्वा पारी दध्मसि ॥ अर्थ सूर्योदय के होते ही तेरा हृदयदाहि रोग और पाण्डु रोग दूर हो जाते हैं ताल वर्ण की गो के रंग से तुझे हम घेरे रखते हैं।

३. अन्धस्थान्धो वो भक्ष्मीया महास्या महो वो भक्षियोर्जस्थोर्ज। वो भक्षीय रायस्पोषस्थ रायस्पोष वो भक्षीय ॥

अर्थ हे गौओ, आप अत्र देने वाली है अतः आपकी कृपा से हम अन्न प्राप्त करे। आप पूज्यनीय हैं. आपके (गुण व पदार्थ सेवन सेवा करना) सेवन से हममें सात्विक उच्च भाव पैदा होते है। आप बल देने वाली हैं, हमें भी आप बल प्रदान करें। आप धन देने वाली है, धन बढ़ाने वाली है अतः हमारे यहाँ धन की वृद्धि और शक्ति का आप संचार करें।

भावार्थ: पृथ्वी तथा गौ के गुण एक जैसे है. पृथ्वी में जितने तत्व व योगिक उपस्थित है सबके सब गो के पंचगव्य में मिलते हैं। अतः गो अन्न और शक्ति प्रदान करने के साथ चेतना में सतोगुण धारण कराती है।

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